विषय
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रचना: 2024-10-28
रचना: 2024-10-28 21:55
बसंत ऋतु, युवाओं को भेजा गया मन का पत्र
इस क्षण,
डगमगाते हुए मन को लेकर
प्रत्येक दिन बिता रहे
आपके लिए
जैसे फूल खिलते और मुरझाते हैं,
जैसे पेड़ हिलते हैं और फिर सीधे होते हैं,
हमारा यौवन भी इसी तरह बढ़ रहा है।
कुछ दिन मुरझाते हैं,
कुछ दिन टूटते हैं,
पर अंत में हम सभी
अपनी-अपनी जगह पर
बसंत ऋतु के पेड़ बनेंगे।
[पूरी कविता]
<बसंत ऋतु, युवाओं का वादा>
शांत रूप से, पर दृढ़ता से
बिखरे हुए मन को लेकर
दिन-रात सहन करते हुए युवाओं के लिए
हमें फूलों और पेड़ों की तरह जीना चाहिए
जहाँ जड़ें जमी हैं वहाँ से भी
खिलना और बढ़ना
जीवन निरंतर भटकना है
और अनेक मुरझाने और अंकुरण का क्रम है
जैसे फूलों के गिरने का क्षण विश्राम स्थल है, वैसे ही रुकना भी,
जैसे नई कलियों का उगना शुरुआती बिंदु है, वैसे ही उठना भी
डगमगाते हुए खिलना और टूटने पर भी बढ़ना
हम अंततः बसंत ऋतु के पेड़ बनेंगे
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